कहीं से कोई हर्फ़-ए-मोतबर..कहीं से कोई हर्फ़-ए-मोतबर शायद न आएमुसाफ़िर लौट कर अब अपने घर शायद न आएक़फ़स में आब-ओ-दाने की फ़रावानी बहुत हैअसीरों को ख़याल-ए-बाल-ओ-पर शायद न आएकिसे मालूम अहल-ए-हिज्र पर ऐसे भी दिन आएँक़यामत सर से गुज़रे और ख़बर शायद न आएजहाँ रातों को पड़े रहते हैं आँखें मूँद कर लोगवहाँ महताब में चेहरा नज़र शायद न आएकभी ऐसा भी दिन निकले के जब सूरज के हम-राहकोई साहिब-नज़र आए मगर शायद न आएसभी को सहल-अंगारी हुनर लगने लगी हैसरों पर अब ग़ुबार-ए-रह-गुज़र शायद न आए
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