ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़सानेऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने..ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गएवो उम्र क्या हुई वो ज़माने किधर गएवीरान है सहन ओ बाग़ बहारों को क्या हुआवो बुलबुलें कहाँ वो तराने किधर गएहै नज्द में सुकूत हवाओं को क्या हुआलैलाएँ हैं ख़मोश दीवाने किधर गएउजड़े पड़े हैं दश्त ग़ज़ालों पे क्या बनीसूने हैं कोह-सार दीवाने किधर गएवो हिज्र में विसल की उम्मीद क्या हुईवो रंज में ख़ुशी के बहाने किधर गएदिन रात मयकदे में गुज़रती थी ज़िन्दगी'अख़्तर' वो बे-ख़ुदी के ज़माने किधर गए
कोई हँस रहा हैकोई हँस रहा है..कोई हँस रहा है कोई रो रहा हैकोई पा रहा है कोई खो रहा हैकोई ताक में है किसी को है गफ़लतकोई जागता है कोई सो रहा हैकहीँ नाउम्मीदी ने बिजली गिराईकोई बीज उम्मीद के बो रहा हैइसी सोच में मैं तो रहता हूँ 'अकबर'यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा ह
घर की दहलीज़ सेघर की दहलीज़ से..घर की दहलीज़ से बाज़ार में मत आ जानातुम किसी चश्म-ए-ख़रीदार में मत आ जानाख़ाक उड़ाना इन्हीं गलियों में भला लगता हैचलते फिरते किसी दरबार में मत आ जानायूँ ही ख़ुशबू की तरह फैलते रहना हर सूतुम किसी दाम-ए-तलब-गार में मत आ जानादूर साहिल पे खड़े रह के तमाशा करनाकिसी उम्मीद के मझदार में मत आ जानाअच्छे लगते हो के ख़ुद-सर नहीं ख़ुद्दार हो तुमहाँ सिमट के बुत-ए-पिंदार में मत आ जानाचाँद कहता हूँ तो मतलब न ग़लत लेना तुमरात को रोज़न-ए-दीवार में मत आ जाना
मैं इस उम्मीद पे डूबामैं इस उम्मीद पे डूबा..मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगाअब इसके बाद मेरा इम्तिहान क्या लेगाये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगाढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगामैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगाकोई चिराग नहीं हूँ जो फिर जला लेगाकलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिएजो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगामैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसेसुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगाहज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता 'वसीम'मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा
तुम न आये एक दिनतुम न आये एक दिन..तुम न आये एक दिन का वादा कर दो दिन तलकहम पड़े तड़पा किये दो-दो पहर दो दिन तलकदर्द-ए-दिल अपना सुनाता हूँ कभी जो एक दिनरहता है उस नाज़नीं को दर्द-ए-सर दो दिन तलकदेखते हैं ख़्वाब में जिस दिन किस की चश्म-ए-मस्तरहते हैं हम दो जहाँ से बेख़बर दो दिन तलकगर यक़ीं हो ये हमें आयेगा तू दो दिन के बादतो जियें हम और इस उम्मीद पर दो दिन तलकक्या सबब क्या वास्ता क्या काम था बतलाइयेघर से जो निकले न अपने तुम "ज़फ़र" दो दिन तलक
मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगामैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगाअब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगाये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगाढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगामैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगाकोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगाकलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिएजो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगामैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसेसुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगाहज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता वसीममैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा