निगाहों का मर्कज़ बना जा रहा हूँमोहब्बत के हाथों लुटा जा रहा हूँमैं क़तरा हूँ लेकिन ब-आग़ोशे-दरियाअज़ल से अबद तक बहा जा रहा हूँवही हुस्न जिसके हैं ये सब मज़ाहिरउसी हुस्न से हल हुआ जा रहा हूँन जाने कहाँ से न जाने किधर कोबस इक अपनी धुन में उड़ा जा रहा हूँन सूरत न मआनी न पैदा, न पिन्हाये किस हुस्न में गुम हुआ जा रहा हूँ
This is a great निगाहों की शायरी.