तू इस क़दर मुझे

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तू इस क़दर मुझे..
तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है
तुझे अलग से जो सोचू अजीब लगता है
जिसे ना हुस्न से मतलब ना इश्क़ से सरोकार
वो शख्स मुझ को बहुत बदनसीब लगता है
हदूद-ए-जात से बाहर निकल के देख ज़रा
ना कोई गैर, ना कोई रक़ीब लगता है
ये दोस्ती, ये मरासिम, ये चाहते ये खुलूस
कभी कभी ये सब कुछ अजीब लगता है
उफक़ पे दूर चमकता हुआ कोई तारा
मुझे चिराग-ए-दयार-ए-हबीब लगता है
ना जाने कब कोई तूफान आयेगा यारो
बलंद मौज से साहिल क़रीब लगता है

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