सुबह रो-रो के..सुबह रो-रो के शाम होती है;..शब तड़प कर तमाम होती हैसामने चश्म-ए-मस्त साक़ी केकिस को परवाह-ए-जाम होती हैकोई ग़ुंचा खिला के बुल-बुल कोबेकली ज़र-ए-दाम होती हैहम जो कहते हैं कुछ इशारों सेये ख़ता ला-कलाम होती है
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