फिर हुनर-मंदों के घर से बे-बुनर जाता हूँ मैंतुम ख़बर बे-ज़ार हो अहल-ए-नज़र जाता हूँ मैंजेब में रख ली हैं क्यों तुम ने ज़ुबानें काट करकिस से अब ये अजनबी पूछे किधर जाता हूँ मैंहाँ मैं साया हूँ किसी शय का मगर ये भी तो देखगर तआक़ुब में न हो सूरज तो मर जाता हूँ मैंहाथ आँखों से उठा कर देख मुझ से कुछ न पूछक्यों उफ़ुक पर फैलती सुब्हों से डर जाता हूँ मैं'अर्श' रस्मों की पनह-गाहें भी अब सर पर नहींऔर वहशी रास्तों पर बे-सिपर जाता हूँ मैं
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