अपना घर छोड़ के हम लोग वहाँ तक पहुँचेसुब्ह-ए-फ़र्दा की किरन भी न जहाँ तक पहुँचेमैं ने आँखों में छुपा रक्खे हैं कुछ और चराग़रौशनी सुब्ह की शायद न यहाँ तक पहुँचेबे-कहे बात समझ लो तो मुनासिब होगाइस से पहले के यही बात ज़बाँ तक पहुँचेतुम ने हम जैसे मुसाफ़िर भी न देखे होंगेजो बहारों से चले और ख़िज़ाँ तक पहुँचेआज पिंदार-ए-तमन्ना का फ़ुसूँ टूट गयाचंद कम-ज़र्फ़ गिले नोक-ए-ज़बाँ तक पहुँचे
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