सोज़ में भी वही इक नग़्मा हैसोज़ में भी वही इक नग़्मा है..सोज़ में भी वही इक नग़्मा है जो साज़ में हैफ़र्क़ नज़दीक़ की और दूर की आवाज़ में हैये सबब है कि तड़प सीना-ए-हर-साज़ में हैमेरी आवाज़ भी शामिल तेरी आवाज़ में हैजो न सूरत में न म'आनी में न आवाज़ में हैदिल की हस्ती भी उसी सिलसिला-ए-राज़ में हैआशिकों के दिले-मजरूह से कोई पूछेवो जो इक लुत्फ़ निगाहे-ग़लत -अंदाज़ में हैगोशे-मुश्ताक़ की क्या बात है अल्लाह-अल्लाहसुन रहा हूँ मैं जो नग़्मा जो अभी साज़ में है
तुझे इज़हार-ए-मोहब्बततुझे इज़हार-ए-मोहब्बत..तुझे इज़हार-ए-मोहब्बत से अगर नफ़रत हैतूने होठों के लरज़ने को तो रोका होताबे-नियाज़ी से, मगर कांपती आवाज़ के साथतूने घबरा के मेरा नाम न पूछा होतातेरे बस में थी अगर मशाल-ए-जज़्बात की लौतेरे रुख्सार में गुलज़ार न भड़का होतायूं तो मुझसे हुई सिर्फ़ आब-ओ-हवा की बातेंअपने टूटे हुए फ़िरक़ों को तो परखा होतायूं ही बेवजह ठिठकने की ज़रूरत क्या थीदम-ए-रुख्सत में अगर याद न आया होता
समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहींसमझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहींजो हम से मिल के बिछड़ जाए वो हमारा नहींअभी से बर्फ़ उलझने लगी है बालों सेअभी तो क़र्ज़-ए-मह-ओ-साल भी उतारा नहींबस एक शाम उसे आवाज़ दी थी हिज्र की शामफिर उस के बाद उसे उम्र भर पुकारा नहींसमंदरों को भी हैरत हुई के डूबते वक़्तकिसी को हम ने मदद के लिए पुकारा नहींवो हम नहीं थे तो फिर कौन था सर-ए-बाज़ारजो कह रहा था के बिकना हमें गवारा नहींहम अहल-ए-दिल हैं मोहब्बत की निस्बतों के अमीनहमारे पास ज़मीनों का गोशवारा नहीं
गुलों को छू के शमीम-ए-दुआ नहीं आईगुलों को छू के शमीम-ए-दुआ नहीं आईखुला हुआ था दरीचा सबा नहीं आईहवा-ए-दश्त अभी तो जुनूँ का मौसम थाकहाँ थे हम तेरी आवाज़ नहीं आई
हाल तो पूछ लू तेरा पर डरता हूँ आवाज़ से तेरीहाल तो पूछ लू तेरा पर डरता हूँ आवाज़ से तेरीज़ब ज़ब सुनी है कमबख्त मोहब्बत ही हुई है