डरा के मौज-ओ-तलातुम से हमनशीनों कोयही तो हैं जो डुबोया किए सफ़ीनों कोशराब हो ही गई है बक़द्रे-पैमानाब-अ़ज़्मे-तर्क निचोड़ा जो आस्तीनों कोजमाले-सुबह दिया रू-ए-नौबहार दियामेरी निग़ाह भी देता ख़ुदा हसीनों कोहमारी राह में आए हज़ार मैख़ानेभुला सके न मगर होश के क़रीनों कोकभी नज़र भी उठाई न सू-ए-बादा-ए-नाबकभी चढ़ा गए पिघला के आबगीनों कोहुए है क़ाफ़िले जुल्मत की वादियों में रवाँचिराग़े राह किए ख़ूंचका जबीनों कोतुझे न माने कोई तुझको इससे क्या 'मजरूह'चल अपनी राह, भटकने दे नुक़्ताचीनों को
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