दूर से आये थे..दूर से आये थे साक़ी सुनके मयख़ाने को हमबस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हममय भी है, मीना भी है, साग़र भी है साक़ी नहींदिल में आता है लगा दें आग मयख़ाने को हमहमको फँसना था क़फ़ज़ में, क्या गिला सय्याद काबस तरसते ही रहे हैं, आब और दाने को हमबाग में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिलअब कहाँ ले जा कर बिठाऐं ऐसे दीवाने को हमताक-ए-आबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गईअब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हमक्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए 'नज़ीर'ताकि शादी मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम
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