उम्मीद तो मंज़िल पे पहुँचने की बड़ी थी, तक़दीर मगर न जाने कहाँ सोयी पड़ी थीखुश थे कि गुजारेंगे रफाकत में सफ़र, तन्हाई मगर अब बाहों को फैलाये खड़ी थी
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