जब रूख़-ए-हुस्न से नक़ाब उठा

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जब रूख़-ए-हुस्न से नक़ाब उठा
बन के हर ज़र्रा आफ़्ताब उठा
डूबी जाती है ज़ब्त की कश्ती
दिल में तूफ़ान-ए-इजि़्तराब उठा
मरने वाले फ़ना भी पर्दा है
उठ सके गर तो ये हिजाब उठा
शाहिद-ए-मय की ख़ल्वतों में पहुँच
पर्दा-ए-नश्शा-ए-शराब उठा
हम तो आँखों का नूर खो बैठे
उन के चेहरे से क्या नक़ाब उठा
होश नक़्स-ए-ख़ुदी है ऐ 'एहसान'
ला उठा शीशा-ए-शराब उठा

This is a great नक़ाब पर शायरी.

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