यूं ही नहीं गूंजती किल्कारीयां आँगन के हर कोने मे| यूं ही नहीं गूंजतकिल्कारीयां आँगन के हर कोने मे.जान हथेली पर रखनी पड़ती ह"माँ" को "माँ" होने मे
तेरे डिब्बे की वो दो तेरे डिब्बे कवो दो ...रोटियाँ कहीबिकती ..नहीं.माँ, महंगे ...होटलोमें आज भी.. भूख मिटतनहीं..
उस के चेहरे की चमक के सामने सादा लगाउस के चेहरे की चमक के सामने सादा लगाआसमाँ पे चाँद पूरा था मगर आधा लगा
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्याआरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्याक्या बताऊँ कि मेरे दिल में है अरमाँ क्या क्या
थे कल जो अपनेथे कल जो अपने..थे कल जो अपने घर में वो मेहमाँ कहाँ हैंजो खो गये हैं या रब वो औसाँ कहाँ हैंआँखों में रोते रोते नम भी नहीं अब तोथे मौजज़न जो पहले वो तूफ़ाँ कहाँ हैंकुछ और ढब अब तो हमें लोग देखते हैंपहले जो ऐ "ज़फ़र" थे वो इन्साँ कहाँ है
देख दिल को मेरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़देख दिल को मेरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़घर है अल्लाह का ये इस की तो तामीर न तोड़ग़ुल सदा वादी-ए-वहशत में रखूँगा बरपाऐ जुनूँ देख मेरे पाँव की ज़ंजीर न तोड़देख टुक ग़ौर से आईना-ए-दिल को मेरेइस में आता है नज़र आलम-ए-तस्वीर न तोड़ताज-ए-ज़र के लिए क्यूँ शमा का सर काटे हैरिश्ता-ए-उल्फ़त-ए-परवाना को गुल-गीर न तोड़अपने बिस्मिल से ये कहता था दम-ए-नज़ा वो शोख़था जो कुछ अहद सो ओ आशिक़-ए-दिल-गीर न तोड़सहम कर ऐ 'ज़फ़र' उस शोख़ कमाँ-दार से कहखींच कर देख मेरे सीने से तू तीर न तोड़