खुलेगी इस नज़र पेखुलेगी इस नज़र पे..खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ताकिया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ताकोई ज़ंजीर फिर वापस वहीं पर ले के आती हैकठिन हो राह तो छूटता है घर आहिस्ता आहिस्ताबदल देना है रास्ता या कहीं पर बैठ जाना हैकि थकता जा रहा है हमसफ़र आहिस्ता आहिस्ताख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जायेखिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्तामेरी शोला-मिज़ाजी को वो जंगल कैसे रास आयेहवा भी साँस लेती हो जिधर आहिस्ता आहिस्ता
बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गयेबुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गयेकि अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गयेकरेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिलायही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गयेमगर किसी ने हमें हमसफ़र नही जानाये और बात कि हम साथ साथ सब के गयेअब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिएये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गयेगिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नहीं हारागिरफ़्ता दिल है मगर हौंसले भी अब के गयेतुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो 'फ़राज़'इन आँधियों में तो प्यारे चिराग सब के गये
नज़र फ़रेब-ए-कज़ा खा गई तो क्या होगानज़र फ़रेब-ए-कज़ा खा गई तो क्या होगाहयात मौत से टकरा गई तो क्या होगानई सहर के बहुत लोग मुंतज़िर हैं मगरनई सहर भी कजला गई तो क्या होगान रहनुमाओं की मजलिस में ले चलो मुझकोमैं बे-अदब हूँ हँसी आ गई तो क्या होगाग़म-ए-हयात से बेशक़ है ख़ुदकुशी आसाँमगर जो मौत भी शर्मा गई तो क्या होगाशबाब-ए-लाला-ओ-गुल को पुकारनेवालोंख़िज़ाँ-सिरिश्त बहार आ गई तो क्या होगाख़ुशी छीनी है तो ग़म का भी ऐतमाद न करजो रूह ग़म से भी उकता गई तो क्या होगा
ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सीज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सीजारी है अभी गर्दिश-ए-पा सहमी हुई सीदिल टूट तो जाता है पे गिर्या नहीं करताक्या डर है के रहती है वफ़ा सहमी हुई सीउठ जाए नज़र भूल के गर जानिब-ए-अफ़्लाकहोंटों से निकलती है दुआ सहमी हुई सीहाँ हँस लो रफ़ीक़ो कभी देखी नहीं तुम नेनम-नाक निगाहों में हया सहमी हुई सीतक़सीर कोई हो तो सज़ा उम्र का रोनामिट जाएँ वफ़ा में तो जज़ा सहमी हुई सीहै 'अर्श' वहाँ आज मुहीत एक ख़ामोशीजिस राह से गुज़री थी क़ज़ा सहमी हुई सी
तुझसे कैसे नज़र मिलाएं दिलबर जानीतुझसे कैसे नज़र मिलाएं दिलबर जानीतुझसे कैसे नज़र मिलाएं दिलबर जानीतेरी दायीं आँख काणीमेरी बायीं आँख काणी
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ मेंकभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ मेंकि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में