घर का रस्ताघर का रस्ता..घर का रस्ता भी मिला था शायदराह में संग-ए-वफ़ा था शायदइस क़दर तेज़ हवा के झोंकेशाख़ पर फूल खिला था शायदजिस की बातों के फ़साने लिखेउस ने तो कुछ न कहा था शायदलोग बे-मेहर न होते होंगेवहम सा दिल को हुआ था शायदतुझ को भूले तो दुआ तक भूलेऔर वही वक़्त-ए-दुआ था शायदख़ून-ए-दिल में तो डुबोया था क़लमऔर फिर कुछ न लिखा था शायददिल का जो रंग है ये रंग-ए-'अदापहले आँखों में रचा था शायद
आज किसी ने बातों बातों मेंआज किसी ने बातों बातों में..आज किसी ने बातों बातों में, जब उन का नाम लियादिल ने जैसे ठोकर खाई, दर्द ने बढ़कर थाम लियाघर से दामन झाड़ के निकले, वहशत का सामान न पूछयानी गर्द-ए-राह से हमने, रख़्त-ए-सफ़र का काम लियादीवारों के साये-साये, उम्र बिताई दीवानेमुफ़्त में तनासानि-ए-ग़म का अपने पर इल्ज़ाम लियाराह-ए-तलब में चलते चलते, थक के जब हम चूर हुएज़ुल्फ़ की ठंडी छांव में बैठे, पल दो पल आराम लियाहोंठ जलें या सीना सुलगे, कोई तरस कब खाता हैजाम उसी का जिसने 'ताबाँ', जुर्रत से कुछ काम लिया
आपकी बातों पे दिल हारूंआपकी बातों पे दिल हारूंआपकी सूरत पे जान वारूंजिस नहीं आता आपका कोई सन्देशदिल करता है आपके गाल पर दो तमाचे मारूं
क्या गिला करें उन बातों सेक्या गिला करें उन बातों सेक्या शिक़वा करें उन रातों सेकहें भला किसकी खता इसे हमकोई खेल गया फिर से जज़बातों से