कौन पूछता है पिंजरे में बंद 'परिंदों' को ग़ालिबकौन पूछता है पिंजरे में बंद 'परिंदों' को ग़ालिबयाद वही आते हैं उड़ जाते हैं
इश्क पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'इश्क पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'जो लगाये न लगे और बुझाये न बने
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या हैहर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या हैतुम्ही कहो कि ये अंदाजे-गुफ्तगू क्या हैन शोले में ये करिश्मा न बर्क में ये अदाकोई बताओ कि वो शोखे-तुंद-ख़ू क्या हैये रश्क है कि वो होता है हमसुखन तुमसेवरगना खौफे-बद-अमोजिए-अदू क्या हैचिपक रहा है बदन लहू से पैरहनहमारी जेब को अब हाजते-रफू क्या हैजला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगाकुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या हैबना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतरातावगरना शहर में ग़ालिब कि आबरू क्या है
कैसे मुमकिन था किसी और दवा से इलाज़कैसे मुमकिन था किसी और दवा से इलाज़अय ग़ालिबइश्क का रोग था.. "माँ की चप्पल से ही आराम आया।
आँखों से आँसू छलक पड़े बेरोजगारी के उसआँखों से आँसू छलक पड़े बेरोजगारी के उसअहसास पे ग़ालिब जब घर वाली ने कहा"ए जी खाली बैठे हो तो ये मटर ही छील दो"
क्या बताए ग़ालिब वो गुस्से में भी हम पे रहम कर गईक्या बताए ग़ालिब वो गुस्से में भी हम पे रहम कर गईलगाया कस के चांटा और सर्दी में गाल गरम कर गई