जाने क्यूँ आजकल, तुम्हारी कमी अखरती है बहुयादों के बन्द कमरे में, ज़िन्दगी सिसकती है बहुपनपने नहीं देता कभी, बेदर्द सी उस ख़्वाहिश कमहसूस तुम्हें जो करने की, कोशिश करती है बहुदावे करती हैं ज़िन्दगी, जो हर दिन तुझे भुलाने ककिसी न किसी बहाने से, याद तुझे करती है बहुआहट से भी चौंक जाए, मुस्कराने से ही कतरामालूम नहीं क्यों ज़िन्दगी, जीने से डरती है बहुत