चल पड़ा हूँ किधर

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चल पड़ा हूँ किधर, जबसे छूटा है घर और बिछड़ा है मेरा हसीं हमसफर चल पड़ा हूँ किधर, जाने कौन शहर अपने साये से रुखसत हुआ था कभी जब दीये बुझ गए मुफ़लिसी में सभी अब अंधेरे में रहता हूँ आठों पहर चल पड़ा हूँ किधर, जाने कौन शहर कोशिशें की बहुत, हौसले थे मगर हो गया चाक मेरा ये नाज़ुक जिगर फिर भी मिल न सका इश्क में रहगुज़र चल पड़ा हूँ किधर, जाने कौन शहर सागर से उठे थे धुएँ की तरह फिर हवा में उड़े पंछियों की तरह और घटा बनके एक दिन बरसी नज़र चल पड़ा हूँ किधर, जाने कौन शहर

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