अजब गुलशन का
मंज’र हो गया है,
यहाँ हर फूल नश्तर
हो गया है।
तरसते हैं कहीं दो बूँद
को लोग,
कहीं हर तरफ समन्दर
हो गया है।
कभी खुद को नहीं
देखा था जिसने,
सुना है वह दर्पण
बनाने वाला हो गया है।
कहीं चुभता है मखमल
भी बदन में,
कहीं फुटपाथ बिस्तर
हो गया है।
हमारे हमदर्द दोस्तों
के खेलने को,
हमारा दिल भी
चौसर हो गया है।
बिना मकसद सुबह
से शाम हो जाना,
यही अपना मुक’द्दर
हो गया है।
आसमानों में
उतरना चाहता हूँ,
बहुत दिलकश ये
मंज’र हो गया है।
शुभ सुबह का सलाम स्वीकार हो।