इस बार उन से मिल के जुदा हम जो हो गएइस बार उन से मिल के जुदा हम जो हो गएउन की सहेलियों के भी आँचल भिगो गएचौराहों का तो हुस्न बढ़ा शहर के मगरजो लोग नामवर थे वो पत्थर के हो गएसब देख कर गुज़र गए एक पल में और हमदीवार पर बने हुए मंज़र में खो गएमुझ को भी जागने की अज़ीयत से दे नजातऐ रात अब तो घर के दर ओ बाम सो गएकिस किस से और जाने मोहब्बत जताते हमअच्छा हुआ कि बाल ये चाँदी के हो गएइतनी लहू-लुहान तो पहले फ़ज़ा न थीशायद हमारी आँखों में अब ज़ख़्म हो गएइख़्लास का मुज़ाहिरा करने जो आए थे'अज़हर' तमाम ज़ेहन में काँटे चुभो गए
ख़ून बर कर मुनासिबख़ून बर कर मुनासिब..ख़ून बर कर मुनासिब नहीं दिल बहेदिल नहीं मानता कौन दिल से कहेतेरी दुनिया में आए बहुत दिन रहेसुख ये पाया कि हम ने बहुत दुख सहेबुलबुलें गुल के आँसू नहीं चाटतींउन को अपनी ही मरग़ूब हैं चहचहेआलम-ए-नज़ा में सुन रहा हूँ में क्याये अज़ीज़ों की चीख़ें हैं कया क़हक़हेइस नए हुस्न की भी अदाओं पे हममर मिटेंगे ब-शर्ते-के ज़िंदा रहेतुम 'हफ़ीज' अब घिसटने की मंज़िल में होदौर-ए-अय्याम पहिया है ग़म हैं रहे
बंद आँखों से न हुस्न-ए-शब का अंदाज़ा लगाबंद आँखों से न हुस्न-ए-शब का अंदाज़ा लगामहमिल-ए-दिल से निकल सर को हवा ताज़ा लगादेख रह जाए न तू ख़्वाहिश के गुम्बद में असीरघर बनाता है तो सब से पहले दरवाज़ा लगाहाँ समंदर में उतर लेकिन उभरने की भी सोचडूबने से पहले गहराई का अंदाज़ा लगाहर तरफ़ से आएगा तेरी सदाओं का जवाबचुप के चंगुल से निकल और एक आवाज़ा लगासर उठा कर चलने की अब याद भी बाक़ी नहींमेरे झुकने से मेरी ज़िल्लत का अंदाज़ा लगारहम खा कर 'अर्श' उस ने इस तरफ़ देखा मगरये भी दिल दे बैठने का मुझ को ख़मियाज़ा लगा
तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँतुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँहुस्न-ए-यज़्दां से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूंतूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न थामैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँसिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातेंमै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँवक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खालयूं तो मैं तूटते तारों का धुआं तक देखूँदिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जातामैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँएक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूदहुस्न-ए-इन्सां से निपट लूं तो वहाँ तक देखूँ
देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करनादेखना भी तो उन्हें दूर से देखा करनाशेवा-ए-इश्क़ नहीं हुस्न को रुसवा करनाएक नज़र ही तेरी काफ़ी थी कि आई राहत-ए-जान;कुछ भी दुश्वार न था मुझ को शकेबा करना;उन को यहाँ वादे पे आ लेने दे ऐ अब्र-ए-बहार;जिस तरह चाहना फिर बाद में बरसा करना;शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रख लेदिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करनाकुछ समझ में नहीं आता कि ये क्या है 'हसरत'उन से मिलकर भी न इज़हार-ए-तमन्ना करना
तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँतुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँहुस्न-ए-यज़्दां से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूंतूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न थामैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँसिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातेंमै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँवक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खालयूं तो मैं तूटते तारों का धुआं तक देखूँदिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जातामैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँएक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूदहुस्न-ए-इन्सां से निपट लूं तो वहाँ तक देखूँ