हर इक लम्हे की रग मेंहर इक लम्हे की रग में..हर इक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता हैवहाँ तारा लरज़ता है जो याँ पत्ता खड़कता हैढके रहते हैं गहरे अब्र में बातिन के सब मंज़रकभी इक लहज़ा-ए-इदराक बिजली सा कड़कता हैमुझे दीवाना कर देती है अपनी मौत की शोख़ीकोई मुझ में रग-ए-इज़हार की सूरत फड़कता हैफिर इक दिन आग लग जाती है जंगल में हक़ीक़त केकहीं पहले-पहल इक ख़्वाब का शोला भड़कता हैमेरी नज़रें ही मेरे अक्स को मजरूह करती हैंनिगाहें मुर्तकिज़ होती हैं और शीशा तड़कता है