आँखों ने हाल कह दिया होंठ न फिर हिला सके

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आँखों ने हाल कह दिया होंठ न फिर हिला सके
दिल में हज़ार ज़ख्म थे जो न उन्हें दिखा सके
घर में जो एक चिराग था तुम ने उसे बुझा दिया
कोई कभी चिराग हम घर में न फिर जला सके
शिकवा नहीं है अर्ज़ है मुमकिन अगर हो आप से
दीजे मुझ को ग़म जरूर दिल जो मिरा उठा सके
वक़्त क़रीब आ गया हाल अजीब हो गया
ऐसे में तेरा नाम हम फिर भी न लब पे ला सके
उस ने भुला के आप को नजरों से भी गिरा दिया,
'नासिर'-ए-ख़स्ता-हाल फिर क्यों न उसे भुला सके

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