भड़का रहे हैं आग

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भड़का रहे हैं आग..
भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागार से हम
ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम
कुछ और बड़ गए अंधेरे तो क्या हुआ
मायूस तो नहीं हैं तुलु-ए-सहर से हम
ले दे के अपने पास फ़क़त एक नज़र तो है
क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से ह
माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
कुछ ख़ार कम कर गए गुज़रे जिधर से हम

This is a great भड़काऊ शायरी.

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