झूठी बुलंदियों का धुँआ​

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झूठी बुलंदियों का धुँआ​...
​झूठी बुलंदियों का धुँआ पार कर के आ​;​
​क़द नापना है मेरा तो छत से उतर के आ;
​​
इस पार मुंतज़िर हैं तेरी खुश-नसीबियाँ​
​लेकिन ये शर्त है कि नदी पार कर के आ;

​​​कुछ दूर मैं भी दोशे-हवा पर सफर करूँ​
​कुछ दूर तू भी खाक की.. सुरत बिखर के आ​;
.
​मैं धूल में अटा हूँ मगर तुझको क्या हुआ;​
.
आईना देख जा ज़रा घर जा सँवर के आ

सोने का रथ फ़क़ीर के घर तक न आयेगा;​​
कुछ माँगना है हमसे तो पैदल उतर के आ​

This is a great झूठी कसम शायरी. If you like बुलंदियों पर शायरी then you will love this.

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